Monday, August 27, 2007

बचपन की काव्य रचनाएँ (2) ....

सब पर भारी नारी...

ऐ प्रचंड, न कर घमंड,
रूप रंग में सुशीला,
नारी तुझसे नर है दंग,
तेरा पेंच होता है ढीला |
जरा सी बात में करती दंगा,
जली भुनी तू कुछ ऐसे ऐंठे,
पति को करती कुछ साल में गंजा,
घर पर बैठे बैठे,
मारे करंट जैसे मेघों की चपला,
कौन मूर्ख कहता है तुझको अबला,
ऐ लज्जावान औ बेलन को धारिणी,
सुसज्जावन व शौक से विहारिणी,
पुत्र छीने सास से, बहिनी से भाई,
नर तेरा गुलाम, जिसकी तू है लुगाई,
लड़ने में तेज, वाणी में करारी,
जो सब पर है भारी, वो भारी है नारी ||

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सड़कछाप-प्यार....

एक काला, मनचला, कौव्वा जो था बड़ा मस्त,
एक मेम कौव्वी को देख कर है हुआ पस्त,
दिल में चली छुक-छुक गाड़ी फिर उसी वक़्त,
अपनी कड़क आवाज़ में बोला डियर शी-क्रो,
प्लीज़ अपनी तिरछी नज़रों से न मारो एरो,
मन मैं हूँ जेब से थोड़ा कड़का,
पर मोहल्ले का हूँ सबसे हैण्ड-सम लड़का,
यूँ टूटी इंग्लिश बोल कर उसने रौब दिखाई,
पर उसके ऊपर एक आफत आई,
सुनकर मेम ने उसे खूब फटकारा,
गुस्से में अपना सैंडिल भी जोर से मारा,
बोली, कभी आईने में देखी है अपनी शकल,
चढ़ी आँखें, रंग काला, और बेहूदी अकल,
कौव्वा बोला, अजी हमको काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं,
हमको भी तुम्हारे एरिया में कई जानने वाले हैं,
डार्लिंग, जब भी तुम पर होगी कोई मुसीबत,
बनकर हीरो जान पर खेल कर करूँगा तुम्हारी हिफाजत,
इस पर कौव्वी ने दी उसे हिदायत,
अब कभी मेरे पास भी तुम न फटकना,
मुझे भी आता है, तुम जैसो से निपटना,
तुझे तो पिटवाउंगी खूब,
बच्चू याद आएगा छट्टी का दूध,
बेटा, ये कोई हिंदी फिल्म नहीं है,
और अभी तेरी लाइन भी क्लियर नहीं है,
इतना कह कर कौव्वी तो गयी अपने घर,
बेचारा कागा, लम्बी सांसें रहा था भर,
उसकी सारी गर्मी पड़ चुकी थी ठंडी,
उसकी लव-ट्रेन को मिल चुकी थी लाल झंडी ||

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मच्छर चालीसा...

दोहा:
जूं जूं की आवाज़ उठी, कानो के चहु ओर |
श्री मच्छर ने दर्शन दिए, अब भागूं किस ओर ||
अपने से मुझे हे जंतु, रखना सदा बचाय |
स्तुति के, फिर, अंत में, बचा रखा है उपाय ||

चौपाई:

मच्छर जी हैं अति बलवाना, जग में न कोई उनके समाना ||
कृष्ण वर्ण की कोमल काया, बेचारे को कोई न भाया ||
पलक झपकते यह आ जाते, पल ही पल में ब्लड पी जाते ||
हाथ-पैर को करते घायल, पर यह छिपी-कलि के कायल ||
एक वार में सूढ़ी अन्दर, मानव, हाथी हो या बन्दर ||
डाक्टर के हैं जुडवा भाई, डाक्टर अच्छा यह है बुराई ||
उसी समान यह सुई लगते, और रगड़ने को कह जाते ||
रोग अनेक इन्ही के कारण, करते नहीं वस्त्र यह धारण ||
यह दे जाते जो रोगाणु, डाक्टर करता उसपर झाड़ू ||
परोक्ष रूप से वैद्द्य हितैषी, कर देते ऐसी की तैसी ||
इनके होते दो परकार, अलग अलग इनका आकार ||
बहादुरी में नहीं है सानी, फिनिट है इनका दुश्मन जानी ||
शेरो की नाक भी आसन, इनसे न शिक्षा न कोई भासन ||
इन पर चलते कई शाश्त्र हैं, कुछ कहानियो के ये पात्र हैं ||
छोटा शेइर नहीं है डरता, घोषित करके वार है करता ||
सुनकर यह मच्छर चालीसा, कटे मच्छर घाव होए बीसा ||
जय जय जय ओ मच्छर भाई, याद कराये सबकी माई ||

दोहा:
छोटा छोटा सा यह शेर, करता बड़े बड़ो को ढेर ||
काटेउ मच्छर डोंट वरी, मैट जलाओ, जलाओ कछुआ हरी ||

2 comments:

Sunil Kumar said...

व्यंग्य का सहारा लेकर आप वार करते है लगे रहिये , शुभकामनाएं

shail said...

bhayia u can also add way u had written for MAA.... purani yaad taja ho gayi jab tumhari kavita school magzine main aayi thi