Saturday, August 2, 2008

विडम्बना...

निश्तेज अग्नि, तुषार ज्वाला, अनुभूतियाँ ही चुभती हैं,
होने की मारिचिका से, शान्ति भी हसती है
शर संधान में कुशल ही लक्ष्य बन कर रह गया
मरू में पनपा जीवन तो वर्षा में बह गया
बधिर ने पायी जो शक्ति कोलाहल में मर गया
गूंगे की रिक्तता भर रही थी वह बोलने से डर गया
काल की शीतल सी चादर असमय ही दहकती है

इन पुराने और उन नए, क्षणों का जाना नियति थी
आते समय को भांप कर रुकना कदापि नीति थी
ढपोल शंखो के साथ चलने की नीति भी अनीति थी
क्या करें? अपेक्षाएं नित हर दिशा से रात दिन जो तकती हैं

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