Friday, August 20, 2010

कुछ इधर कही, कुछ उधर कही....


बारिश...
ज्यों बूंदों की चादर से ढकता है आलम सारा,
आसमान के कागज़ पर तसवीर एक बन जाती है,
कुछ बीती और बितायी घड़ियाँ, फिर सांसें ले उठती हैं,
मुझ पर अच्छी लगने वाली एक हँसी आ जाती है...

दर्द बहुत है, पर ना जाने क्यूँ, खुश हो जाता हूँ,
खाने वाला सन्नाटा भी दोस्त सरीखा लगता है,
विचार मग्न इस शांत झील में, लहरें जीवन लाती हैं,
मुझ पर अच्छी लगने वाली एक हँसी आ जाती है...

एक डोर का छोर ढूंढते, रात से दिन हो जाता है,
मुझको जगा देख के सूरज, मंद मंद मुस्काता है,
अनसुलझी, कुछ सुलझी डोरी, नींदों को उलझाती है,
मुझ पर अच्छी लगने वाली एक हँसी आ जाती है....

जाने किस रेखा पर मेरी, नाम लिखा होगा तेरा,
सोंच यही, पढ़ना लकीर को, काम रहा अब मेरा,
भावुक हूँ और कविता मेरी भाव ना वो दर्शाती है,
मुझ पर अच्छी लगने वाली एक हँसी आ जाती है...

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5 comments:

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) said...

bahut khoob lafz bune hain aapne bhi! Best wishes, Gudia

Akshitaa (Pakhi) said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..सुंदर भाव.बधाई.


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'पाखी की दुनिया' में अब सी-प्लेन में घूमने की तैयारी...

mai... ratnakar said...

जाने किस रेखा पर मेरी, नाम लिखा होगा तेरा,
सोंच यही, पढ़ना लकीर को, काम रहा अब मेरा,
भावुक हूँ और कविता मेरी भाव ना वो दर्शाती है,
मुझ पर अच्छी लगने वाली एक हँसी आ जाती है..

पूरी कृति बेहद प्रभावी है और आख़िरी में भावना तथा भाव ना के बीच की बारीकी सी दूरी को बेहद खूबी से पार करना आपके लेखकीय हुनर में चार चाँद लगा रहाहै

Chintz said...

Sadhuwaad!!!

Rimjhim said...

This is the most b'ful poem on rain i have ever read... I could relate to it so much coz i seriously feel tht barish ke time pe mujhpe achhi lagne wali ek hansi aa jati hai.. :)