Thursday, August 7, 2008

लेटा हूँ...सुनता हूँ...


लेटा हूँ...सुनता हूँ...

आवाजें दरवाजे से आती,

बाहर थोढे भारी गले से

दीदी मेरी मुझे बुलाती

आँख खोल कर देखूं तो

बस मैं ख़ुद को लेटा दिखता हूँ

लेटा हूँ... सुनता हूँ...

रोते हैं सब लोग यहाँ पर

कहते हैं मैं नही रहा

पगली माँ, क्यूँ बैठी ऐसे

अपने आंसू नही बहा

बोल जरा, मैं बस चुप हूँ

लेटा हूँ...सुनता हूँ...

भांप गए मेरी हालत को

लगता है सब जान गए

मुझको ले आए घर पर

मन की बात को मान गए

मुस्कुराता नही, फ़िर भी खुश हूँ

लेटा हूँ...सुनता हूँ...

जन्मदिन तो नही है मेरा,

फ़िर क्यूँ इतने लोग मिले हैं

नए नए ये कपड़े मेरे

अलमारी से क्यूँ निकले हैं

मत नहलाओ मुझे, मैं ख़ुद नहाता हूँ

लेटा हूँ...सुनता हूँ...

मेरे घर के बाहर ही

मेरा बिस्तर लगा हुआ है

नही चाह है जाने की

क्यूँ फ़िर मुझको बाँध दिया है

खुल कर जीवन जीना चाहता हूँ

लेटा हूँ...सुनता हूँ...

पापा के कंधे पर बैठा,

देखने जाता था मेला

चार कंधो पर लेटा,

जाते देखूं एक मेला

श्मशान की शान्ति को तोड़ता हूँ

लेटा हूँ...सुनता हूँ...

बर्फ कभी न ठंडी

अग्नि मुझे न गरम लगे

शायद यही जान ने को

यह लकड़ी की सेज सजे

आग को इतना ठंडा कभी नही कह पता था

लेटा था ...सुनता था ...

11 comments:

Priyanki said...

kavi ji ....aapke charan kahan hain..kya mast likha hain...2 gd man!!!u kno wen i ws reading d poem mre goosebumps ho gaye the...awsme..publish karo ise.. :)

Chintz said...

i wrote it last night...
actually yesterday there was sad demise in ma building.

डा ’मणि said...

हिन्दी ब्लॉग्स के नये साथियों मे आपका बहुत स्वागत है
पहले तो एक सशक्त रचना के लिए आपको बहुत बधाई और फिर
चलिए अपने व ब्लॉग के परिचय के लिए कुछ पंक्तियाँ रख रहा हूँ देखिएगा

मुक्तक .......

हमारी कोशिशें हैं इस, अंधेरे को मिटाने की
हमारी कोशिशें हैं इस, धरा को जगमगाने की
हमारी आँख ने काफी, बड़ा सा ख्वाब देखा है
हमारी कोशिशें हैं इक, नया सूरज उगाने की .

और

मैं जो हूँ
मुझे वही रहना चाहिए

यानि
वन का वृक्ष
खेत की मेढ़
नदी की लहर
दूर का गीत , व्यतीत
वर्तमान में उपस्थित

भविष्य में
मैं जो हूँ
मुझे वही रहना चाहिये

तेज गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कडाके की सर्दी
खून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी

मैं जो हूँ ,
मुझे वही रहना चाहिये
मुझे अपना होना
ठीक ठीक सहना चाहिए

तपना चाहिए
अगर लोहा हूँ
तो हल बनने के लिए
बीज हूँ
तो गड़ना चाहिए
फूल बनने के लिए

मगर मैं
कबसे
ऐसा नहीं कर रहा हूँ
जो हूँ वही होने से डर रहा हूँ ..



आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा मे
डॉ.उदय 'मणि'
हिन्दी की उत्कृष्ट कविताओं व ग़ज़लों के लिए देखें
http://mainsamayhun.blogspot.com

Vinay said...

bahut badhaaiyaan! achchii rachana prakashit karane ke liye!

शोभा said...

शायद यही जान ने को

यह लकड़ी की सेज सजे

आग को इतना ठंडा कभी नही कह पता था

लेटा था ...सुनता था ...
बहुत ही सुन्दर लिखा है। बहुत-बहुत स्वागत है आपका।

रश्मि प्रभा... said...

vismit hun,bahut hi andruni ehsaas.......

सरस्वती प्रसाद said...

ek kalpana ko bakhoobi utaara hai,
bahut sundar

Anonymous said...

:) :)

Chintz said...

Janta ko mera haardik dhanyawaad.
aapki sukhad tippaniyon ka abhinandan hai.
main 11 varsh ki aayu se kavitaayein likh raha hoon...
swaagat ka yeh roop mera pratham anubhav hai. Mansa Vachaa Karmana... kshitij vistaar utsaah, rakt samaan anubhav karta hoon...

Jai Ho!!!

PANKU said...

अति उत्तम !!!!
हृदय को छु लेने वाली लेखनी है यह

Anonymous said...

very touching, Awesome job !